जब चाँदका धीरज छूट गया, वह रघुनन्दनसे रूठ गया,
बोला- रातको आलोकित हम ही ने करा हैं,
स्वयं शिवने हमें अपने सिरपे धरा हैं..
तुमने भी तो उपयोग किया हमारा हैं,
हमारी ही चाँदनीमें सियाको निहारा हैं..
सीताके रुपको हम ही ने सँवारा हैं,
चाँदके तुल्य उनका मुखड़ा निखारा हैं..
जिस वक़्त यादमें सीताकी, तुम चुपके चुपके रोते थे,
उस वक़त तुम्हारे संगमें बस, हम ही जागते होते थे..
संजीवनी लाऊंगा, लखनको बचाऊंगा,
हनुमानने तुम्हें कर तो दिया आश्वस्त,
मगर, अपनी चांदनी बिखराकर,
मार्ग मैंने ही किया था प्रशस्त..
तुमने हनुमानको गले से लगाया,
मगर हमारा कहीं नाम भी न आया..
रावणकी मृत्युसे में भी प्रसन्न था,
तुम्हारी विजयसे प्रफुल्लित मन था..
मैंने भी आकाशसे था पृथ्वी पर झाँका,
गगनके सितारों को करीने से टाँका..
सभीने तुम्हारा विजयोत्सव मनाया,
सारे नगरको दुल्हन-सा सजाया..
इस अवसर पर तुमने सभीको बुलाया,
बताओ, मुझे फिर क्यों तुमने भुलाया ?!
क्यों तुमने अपना विजयोत्सव
अमावस्याकी रातको मनाया?
अगर तुम अपना उत्सव किसी और दिन मनाते,
आधे-अधूरे ही सही ,हम भी शामिल हो जाते..
मुज़े सताते है, चिड़ाते है लोग,
आज भी दिवाली, अमवासमें ही मनाते हैं लोग..
तो रामने कहा-
क्यों व्यर्थमें घबराता हैं?
जो कुछ खोता हैं- वही तो पाता हैं..
जा- तुज़े अब लोग न सतायेंगे..
आज से सब तेरा मान ही बढ़ाएंगे..
जो मुज़े राम कहते थे वही,
आज से “रामचंद्र” कह कर बुलाएँगे...
-Author Unknown
|| जय सियाराम ||
No comments :
Post a Comment