लोग सच कहते हैं
"औरतें बेहद अजीब होतीं है"
रात भर पूरा सोती नहीं
थोड़ा थोड़ा जागती रहतीं है.
नींद की स्याही में
उंगलियां डुबो कर
दिन की बही लिखतीं
टटोलती रहतीं है.
दरवाजों की कुंडियाॅ
बच्चों की चादर
पति का मन.
और जब जागती हैं सुबह
तो पूरा नहीं जागती
नींद में ही भागतीं है.
[सच है औरतें बेहद अजीब होतीं हैं]
हवा की तरह घूमतीं, कभी घर में, कभी बाहर.
टिफिन में रोज़ नयी रखतीं कविताएँ
गमलों में रोज बो देती आशाऐं.
पुराने अजीब से गाने गुनगुनातीं
और चल देतीं फिर
एक नये दिन के मुकाबिल
पहन कर फिर वही सीमायें
खुद से दूर हो कर भी
सब के करीब होतीं हैं.
"औरतें सच में, बेहद अजीब होतीं हैं"
कभी कोई ख्वाब पूरा नहीं देखतीं
बीच में ही छोड़ कर देखने लगतीं हैं
चुल्हे पे चढ़ा दूध.
कभी कोई काम पूरा नहीं करतीं,
बीच में ही छोड़ कर ढूँढने लगतीं हैं.
बच्चों के मोजे, पेन्सिल, किताब
बचपन में खोई गुडिया,
जवानी में खोए पलाश,
मायके में छूट गयी स्टापू की गोटी,
छिपन-छिपाई के ठिकाने
वो छोटी बहन छिप के कहीं रोती.
सहेलियों से लिए-दिये.
या चुकाए गए हिसाब
बच्चों के मोजे, पेन्सिल किताब
खोलती बंद करती खिड़कियाँ
क्या कर रही हो?
सो गयी क्या ?
खाती रहती झिङकियाँ
न शौक से जीती है ,
न ठीक से मरती है.
कोई काम ढ़ंग से नहीं करती है.
सच है, औरतें बेहद अजीब होतीं हैं.
कितनी बार देखी है…
मेकअप लगाये,
चेहरे के नील छिपाए
वो कांस्टेबल लडकी,
वो ब्यूटीशियन,
वो भाभी, वो दीदी…
चप्पल के टूटे स्ट्रैप को
साड़ी के फाल से छिपाती
वो अनुशासन प्रिय टीचर
और कभी दिख ही जाती है
कॉरीडोर में, जल्दी जल्दी चलती,
नाखूनों से सूखा आटा झाडते,
सुबह जल्दी में नहाई
अस्पताल मे आई वो लेडी डॉक्टर
दिन अक्सर गुजरता है शहादत में
रात फिर से सलीब होती है…
सच है, औरतें बेहद अजीब होतीं हैं
सूखे मौसम में बारिशों को
याद कर के रोतीं हैं
उम्र भर हथेलियों में
तितलियां संजोतीं हैं
और जब एक दिन
बूंदें सचमुच बरस जातीं हैं
हवाएँ सचमुच गुनगुनाती हैं
फिजाएं सचमुच खिलखिलातीं हैं
तो ये सूखे कपड़ों, अचार, पापड़
बच्चों और सारी दुनिया को
भीगने से बचाने को दौड़ जातीं हैं.
सच है, औरतें बेहद अजीब होतीं हैं.
खुशी के एक आश्वासन पर
पूरा पूरा जीवन काट देतीं है
अनगिनत खाईयों को
अनगिनत पुलो से पाट देतीं है.
सच है, औरतें बेहद अजीब होतीं हैं.
ऐसा कोई करता है क्या?
रस्मों के पहाड़ों, जंगलों में
नदी की तरह बहती…
कोंपल की तरह फूटती…
जिन्दगी की आँख से
दिन रात इस तरह
और कोई झरता है क्या?
ऐसा कोई करता है क्या?
सच मे, औरतें बेहद अजीब होतीं हैं...
"औरतें बेहद अजीब होतीं है"
रात भर पूरा सोती नहीं
थोड़ा थोड़ा जागती रहतीं है.
नींद की स्याही में
उंगलियां डुबो कर
दिन की बही लिखतीं
टटोलती रहतीं है.
दरवाजों की कुंडियाॅ
बच्चों की चादर
पति का मन.
और जब जागती हैं सुबह
तो पूरा नहीं जागती
नींद में ही भागतीं है.
[सच है औरतें बेहद अजीब होतीं हैं]
हवा की तरह घूमतीं, कभी घर में, कभी बाहर.
टिफिन में रोज़ नयी रखतीं कविताएँ
गमलों में रोज बो देती आशाऐं.
पुराने अजीब से गाने गुनगुनातीं
और चल देतीं फिर
एक नये दिन के मुकाबिल
पहन कर फिर वही सीमायें
खुद से दूर हो कर भी
सब के करीब होतीं हैं.
"औरतें सच में, बेहद अजीब होतीं हैं"
कभी कोई ख्वाब पूरा नहीं देखतीं
बीच में ही छोड़ कर देखने लगतीं हैं
चुल्हे पे चढ़ा दूध.
कभी कोई काम पूरा नहीं करतीं,
बीच में ही छोड़ कर ढूँढने लगतीं हैं.
बच्चों के मोजे, पेन्सिल, किताब
बचपन में खोई गुडिया,
जवानी में खोए पलाश,
मायके में छूट गयी स्टापू की गोटी,
छिपन-छिपाई के ठिकाने
वो छोटी बहन छिप के कहीं रोती.
सहेलियों से लिए-दिये.
या चुकाए गए हिसाब
बच्चों के मोजे, पेन्सिल किताब
खोलती बंद करती खिड़कियाँ
क्या कर रही हो?
सो गयी क्या ?
खाती रहती झिङकियाँ
न शौक से जीती है ,
न ठीक से मरती है.
कोई काम ढ़ंग से नहीं करती है.
सच है, औरतें बेहद अजीब होतीं हैं.
कितनी बार देखी है…
मेकअप लगाये,
चेहरे के नील छिपाए
वो कांस्टेबल लडकी,
वो ब्यूटीशियन,
वो भाभी, वो दीदी…
चप्पल के टूटे स्ट्रैप को
साड़ी के फाल से छिपाती
वो अनुशासन प्रिय टीचर
और कभी दिख ही जाती है
कॉरीडोर में, जल्दी जल्दी चलती,
नाखूनों से सूखा आटा झाडते,
सुबह जल्दी में नहाई
अस्पताल मे आई वो लेडी डॉक्टर
दिन अक्सर गुजरता है शहादत में
रात फिर से सलीब होती है…
सच है, औरतें बेहद अजीब होतीं हैं
सूखे मौसम में बारिशों को
याद कर के रोतीं हैं
उम्र भर हथेलियों में
तितलियां संजोतीं हैं
और जब एक दिन
बूंदें सचमुच बरस जातीं हैं
हवाएँ सचमुच गुनगुनाती हैं
फिजाएं सचमुच खिलखिलातीं हैं
तो ये सूखे कपड़ों, अचार, पापड़
बच्चों और सारी दुनिया को
भीगने से बचाने को दौड़ जातीं हैं.
सच है, औरतें बेहद अजीब होतीं हैं.
खुशी के एक आश्वासन पर
पूरा पूरा जीवन काट देतीं है
अनगिनत खाईयों को
अनगिनत पुलो से पाट देतीं है.
सच है, औरतें बेहद अजीब होतीं हैं.
ऐसा कोई करता है क्या?
रस्मों के पहाड़ों, जंगलों में
नदी की तरह बहती…
कोंपल की तरह फूटती…
जिन्दगी की आँख से
दिन रात इस तरह
और कोई झरता है क्या?
ऐसा कोई करता है क्या?
सच मे, औरतें बेहद अजीब होतीं हैं...
-ज्योत्सना मिश्रा
(Image Source: http://webneel.com/webneel/blog/25-beautiful-rural-indian-women-paintings-by-tamilnadu-artist-ilayaraja)
Absolutely touchy wonderful & !!
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