Showing posts with label sacrifice. Show all posts
Showing posts with label sacrifice. Show all posts

Tuesday, July 23, 2019

ઉર્મિલા...


જેમ જેમ મન તને ઝંખ્યા કરે,
એમ એમ પુરાણના કોઈ પાત્ર સાથે મારું સામીપ્ય મને સમજાયા કરે..
પ્રેમની ગાંઠોમાં બંધાયેલા ઘણા નામ ઉપસ્યા કલ્પનાની પીંછીએ..
તને તો શ્યામ કહી દીધો- પણ એની સખીઓની જમાતમાં  હું કોણ?

રાધા કે ગોપીની જેમ પીયુ થી દુર રહેવાનું કદી પોસાય કોઈ ને?
નથી મીરા કે आण्डाल- જે સમાઈ પ્રિયતમની મૂર્તિમાં ખુદ ને ખોઈને...

નથી જોયા મેં રુકમણી ને મંદિરોમાં કૃષ્ણ સાથે,
સિયા કે રામ લખાય છે, પણ એય ક્યાં રહેલા આખો જન્મ સાથે ?!..

આ બધામાં એક જ પાત્ર મળ્યું મને- કૈક મારા જેવું..કે પછી હું એના જેવી!
ગમે એટલી ઈચ્છા ને પ્રેમ હોવા છતાં એ પતિ સાથે ના જઈ શકી..

દુનિયા ભરનું ધૈર્ય બસ એની એક પાસે જ હોય એવું લાગે છે..
પતિ વનમાં ને, એની રાહ માં દરવાજે એ ચૌદ વરસ જાગે છે..

તું પણ થોડોક એના સ્વામી જેવો- નાક પર ગુસ્સો, દિલમાં જુસ્સો..
પ્રાથમિકતાઓને ચાહતો, પણ અર્ધાંગીની એ તારો જ હિસ્સો..

તું તારા કર્તવ્યોથી સભાન, નિશાના પર જ તીર લગાવનાર..
ને અહી હું- કોઈ વાંક વગર પ્રતિક્ષામાં –કદાચ એની જેમ જ-
લિખિતંગ -તારી ઉર્મિલા..
-Anita R.

Saturday, May 20, 2017


लोग सच कहते हैं 
"औरतें बेहद अजीब होतीं है"
रात भर पूरा सोती नहीं
थोड़ा थोड़ा जागती रहतीं है.

नींद की स्याही में
उंगलियां डुबो कर
दिन की बही लिखतीं
टटोलती रहतीं है.

दरवाजों की कुंडियाॅ
बच्चों की चादर
पति का मन.

और जब जागती हैं सुबह
तो पूरा नहीं जागती
नींद में ही भागतीं है.

[सच है औरतें बेहद अजीब होतीं हैं]

हवा की तरह घूमतीं, कभी घर में, कभी बाहर.
टिफिन में रोज़ नयी रखतीं कविताएँ
गमलों में रोज बो देती आशाऐं.

पुराने अजीब से गाने गुनगुनातीं
और चल देतीं फिर
एक नये दिन के मुकाबिल
पहन कर फिर वही सीमायें
खुद से दूर हो कर भी
सब के करीब होतीं हैं.

"औरतें सच में, बेहद अजीब होतीं हैं"

कभी कोई ख्वाब पूरा नहीं देखतीं
बीच में ही छोड़ कर देखने लगतीं हैं
चुल्हे पे चढ़ा दूध.


कभी कोई काम पूरा नहीं करतीं,
बीच में ही छोड़ कर ढूँढने लगतीं हैं.
बच्चों के मोजे, पेन्सिल, किताब
बचपन में खोई गुडिया,
जवानी में खोए पलाश,

मायके में छूट गयी स्टापू की गोटी,
छिपन-छिपाई के ठिकाने
वो छोटी बहन छिप के कहीं रोती.

सहेलियों से लिए-दिये.
या चुकाए गए हिसाब
बच्चों के मोजे, पेन्सिल किताब

खोलती बंद करती खिड़कियाँ
क्या कर रही हो?
सो गयी क्या ?
खाती रहती झिङकियाँ

न शौक से जीती है ,
न ठीक से मरती है.
कोई काम ढ़ंग से नहीं करती है.

सच है, औरतें बेहद अजीब होतीं हैं.

कितनी बार देखी है…
मेकअप लगाये,
चेहरे के नील छिपाए
वो कांस्टेबल लडकी,
वो ब्यूटीशियन,
वो भाभी, वो दीदी…

चप्पल के टूटे स्ट्रैप को
साड़ी के फाल से छिपाती
वो अनुशासन प्रिय टीचर
और कभी दिख ही जाती है
कॉरीडोर में, जल्दी जल्दी चलती,
नाखूनों से सूखा आटा झाडते,

सुबह जल्दी में नहाई
अस्पताल मे आई वो लेडी डॉक्टर
दिन अक्सर गुजरता है शहादत में
रात फिर से सलीब होती है…

सच है, औरतें बेहद अजीब होतीं हैं

सूखे मौसम में बारिशों को
याद कर के रोतीं हैं
उम्र भर हथेलियों में
तितलियां संजोतीं हैं

और जब एक दिन
बूंदें सचमुच बरस जातीं हैं
हवाएँ सचमुच गुनगुनाती हैं
फिजाएं सचमुच खिलखिलातीं हैं

तो ये सूखे कपड़ों, अचार, पापड़
बच्चों और सारी दुनिया को
भीगने से बचाने को दौड़ जातीं हैं.


सच है, औरतें बेहद अजीब होतीं हैं.

खुशी के एक आश्वासन पर
पूरा पूरा जीवन काट देतीं है
अनगिनत खाईयों को
अनगिनत पुलो से पाट देतीं है.

सच है, औरतें बेहद अजीब होतीं हैं.

ऐसा कोई करता है क्या?
रस्मों के पहाड़ों, जंगलों में
नदी की तरह बहती…
कोंपल की तरह फूटती…

जिन्दगी की आँख से
दिन रात इस तरह
और कोई झरता है क्या?
ऐसा कोई करता है क्या?


सच मे, औरतें बेहद अजीब होतीं हैं...
-ज्योत्सना मिश्रा


(Image Source: http://webneel.com/webneel/blog/25-beautiful-rural-indian-women-paintings-by-tamilnadu-artist-ilayaraja)


Recent Posts

Recent Posts Widget