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Saturday, May 20, 2017


लोग सच कहते हैं 
"औरतें बेहद अजीब होतीं है"
रात भर पूरा सोती नहीं
थोड़ा थोड़ा जागती रहतीं है.

नींद की स्याही में
उंगलियां डुबो कर
दिन की बही लिखतीं
टटोलती रहतीं है.

दरवाजों की कुंडियाॅ
बच्चों की चादर
पति का मन.

और जब जागती हैं सुबह
तो पूरा नहीं जागती
नींद में ही भागतीं है.

[सच है औरतें बेहद अजीब होतीं हैं]

हवा की तरह घूमतीं, कभी घर में, कभी बाहर.
टिफिन में रोज़ नयी रखतीं कविताएँ
गमलों में रोज बो देती आशाऐं.

पुराने अजीब से गाने गुनगुनातीं
और चल देतीं फिर
एक नये दिन के मुकाबिल
पहन कर फिर वही सीमायें
खुद से दूर हो कर भी
सब के करीब होतीं हैं.

"औरतें सच में, बेहद अजीब होतीं हैं"

कभी कोई ख्वाब पूरा नहीं देखतीं
बीच में ही छोड़ कर देखने लगतीं हैं
चुल्हे पे चढ़ा दूध.


कभी कोई काम पूरा नहीं करतीं,
बीच में ही छोड़ कर ढूँढने लगतीं हैं.
बच्चों के मोजे, पेन्सिल, किताब
बचपन में खोई गुडिया,
जवानी में खोए पलाश,

मायके में छूट गयी स्टापू की गोटी,
छिपन-छिपाई के ठिकाने
वो छोटी बहन छिप के कहीं रोती.

सहेलियों से लिए-दिये.
या चुकाए गए हिसाब
बच्चों के मोजे, पेन्सिल किताब

खोलती बंद करती खिड़कियाँ
क्या कर रही हो?
सो गयी क्या ?
खाती रहती झिङकियाँ

न शौक से जीती है ,
न ठीक से मरती है.
कोई काम ढ़ंग से नहीं करती है.

सच है, औरतें बेहद अजीब होतीं हैं.

कितनी बार देखी है…
मेकअप लगाये,
चेहरे के नील छिपाए
वो कांस्टेबल लडकी,
वो ब्यूटीशियन,
वो भाभी, वो दीदी…

चप्पल के टूटे स्ट्रैप को
साड़ी के फाल से छिपाती
वो अनुशासन प्रिय टीचर
और कभी दिख ही जाती है
कॉरीडोर में, जल्दी जल्दी चलती,
नाखूनों से सूखा आटा झाडते,

सुबह जल्दी में नहाई
अस्पताल मे आई वो लेडी डॉक्टर
दिन अक्सर गुजरता है शहादत में
रात फिर से सलीब होती है…

सच है, औरतें बेहद अजीब होतीं हैं

सूखे मौसम में बारिशों को
याद कर के रोतीं हैं
उम्र भर हथेलियों में
तितलियां संजोतीं हैं

और जब एक दिन
बूंदें सचमुच बरस जातीं हैं
हवाएँ सचमुच गुनगुनाती हैं
फिजाएं सचमुच खिलखिलातीं हैं

तो ये सूखे कपड़ों, अचार, पापड़
बच्चों और सारी दुनिया को
भीगने से बचाने को दौड़ जातीं हैं.


सच है, औरतें बेहद अजीब होतीं हैं.

खुशी के एक आश्वासन पर
पूरा पूरा जीवन काट देतीं है
अनगिनत खाईयों को
अनगिनत पुलो से पाट देतीं है.

सच है, औरतें बेहद अजीब होतीं हैं.

ऐसा कोई करता है क्या?
रस्मों के पहाड़ों, जंगलों में
नदी की तरह बहती…
कोंपल की तरह फूटती…

जिन्दगी की आँख से
दिन रात इस तरह
और कोई झरता है क्या?
ऐसा कोई करता है क्या?


सच मे, औरतें बेहद अजीब होतीं हैं...
-ज्योत्सना मिश्रा


(Image Source: http://webneel.com/webneel/blog/25-beautiful-rural-indian-women-paintings-by-tamilnadu-artist-ilayaraja)


Thursday, October 8, 2015

बेटियाँ - घर के आँगन की चिरैया ..

*  प्रस्तावना 
*  बेटियाँ - घर की चिरैया -प्रतीक
*  शैशव और पीहर
*  कुछ दृष्टांत
*  उपसंहार 




                   ' बेटी ' - यह शब्द ही इतना मीठा, दुलार भरा है कि बोलते ही मन ममता से भर जाता हैं, और खडी होती है एक तसवीर - मुसकाती हुई परी, नन्हे नन्हे हाथो में गुलाबी चूड़ियाँ पहनकर, छोटे छोटे पैरो में पायल पहनकर घरके आँगनमें चहकने वाली प्यारी चिडीया | कितनी प्यारी होती हैं ये बेटियाँ |

                    बेटी सही अर्थ में आँगन की चिरैया - यानी कि चिड़िया होती है | अपने हिस्से के दाने लेकर- अपने हिस्से का दुलार लुटाकर चली जाती हैं- उड़ जाती हैं | और छोड़ जाती हैं पीहर में अपनी यादेँ | बेटियों का दामन सभी के लिए प्रेम से भरा होता हैं | कोई भी रिश्ता हो, बिना बेटियों के वो अधुरा -सा लगता हैं | मानों या ना मानों , पर जिस घर में बेटी ना हो, उस घर का आतिथ्य भी कुछ फ़ीका-सा लगता हैं |

                     'बेटी' शब्द के साथ एक शब्द जुडा है- पीहर | जहाँ वे अपने अस्तित्व का समग्र प्यार लुटा जाती है | पापा की लाड़ली होती है- माँ की दुलारी होती हैं और भाई की मुसकान होती है बेटियाँ | तभी तो इतना स्नेह अपने दामन में संजो पाती है | अगर काम के वक्त बेटा सो रहा हो, तो उसे उठाकर बाप काम पर भेज देगा ; पर अगर उसकी जगह बेटी सो रही हो, तो पिता दो बार सोचेंगे कि उसे जगाएँ या नहीं- पता नही ये सुकून की नींद उसे ससुराल में मिले ना मिले | एक बहुत मशहूर पंक्ति है कि - आपका बेटा तब तक आपका है. जब तक उसकी शादी नहीं हो जाती | पर बेटियाँ तो सदैव बेटियाँ ही रहती है | ससुराल जाने पर भी वें माइके की शुभकामनाएँ ही करती रहती हैं | 
इस पर से एक कथा याद आती हैं - नया शादीशुदा एक जोड़ा था | पति- पत्नी ने मिलकर  फैसला लिया कि कोई भी आये, वो दरवाज़ा नहीं खोलेंगे | सबसे पहले पति के माँ- बाप आए और दरवाज़ा खटखटाने लगे | पर जब कि पहले तय हो चुका था, पति- पत्नी ने दरवाज़ा नहीं खोला | थोड़ी देर बाद पत्नी के माँ- बाप आए और दरवाज़ा खटखटाया| पत्नी ने आंसू भरे नैनो से पति के सामने देखा और बोली -" यह में अपने माँ - बाप के साथ नहीं कर सकती |" और उसने दरवाज़ा खोल दिया | पति ने कुछ कहा नही| बरसो बीत गए और उनके यहाँ पुत्र का जन्म हुआ | दावत दी गई| पर थोड़े वर्षो बाद जब उनको एक पुत्री हुई, तो पति काफी खुश हुआ | पत्नी ने उसका कारण पूछा , तब वो बोला, "यह वो है, जो मेरे लिए दरवाज़ा खोलेगी | " सच में, जितना त्याग और समर्पण बेटी कर सकती है, शायद ही ऐसा कोई रिश्ता होगा | 

                        इतिहास में भी बेटियों ने कुछ -न -कुछ कारणों के लिए समर्पण किये हुए है - चाहे वो अपने राज्य को बचाने के लिए एक मुग़ल से विवाह करती राजपूत की हरकाबाई हो | या फिर अपनी अंतिम साँस तक लडती झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई हो | बेटियाँ सदैव ही अपने पीहर के आँगन को सँवारती है | अगर घर तुल्सीक्यारा है, तो उस पर रखा दीया - बेटी है |

एक लेखक ने बहोत ही कम शब्दों में बेटियों को समजाया है-

"बेटियाँ कुछ लेने नहीं आती है पीहर"

..बेटियाँ.. 
..पीहर आती है.. 
..अपनी जड़ों को सींचने के लिए.. 
..तलाशने आती हैं भाई की खुशियाँ..
..वे ढूँढने आती हैं अपना सलोना बचपन..
..वे रखने आतीं हैं.. 
..आँगन में स्नेह का दीपक..
..बेटियाँ कुछ लेने नहीं आती हैं पीहर..

..बेटियाँ..
..ताबीज बांधने आती हैं दरवाजे पर.. 
..कि नज़र से बचा रहे घर..
..वे नहाने आती हैं ममता की निर्झरनी में..
..देने आती हैं अपने भीतर से थोड़ा-थोड़ा सबको..
..बेटियाँ कुछ लेने नहीं आती हैं पीहर..

..बेटियाँ.. 
..जब भी लौटती हैं ससुराल..
..बहुत सारा वहीं छोड़ जाती हैं..
..तैरती रह जाती हैं.. 
..घर भर की नम आँखों में.. 
..उनकी प्यारी मुस्कान..
..जब भी आती हैं वे, लुटाने ही आती हैं अपना वैभव.. 
..बेटियाँ कुछ लेने नहीं आती हैं पीहर..🙏

बेटियाँ- सच में होती है घर की चिरैया | 

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